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अभू॑दु॒षा इन्द्र॑तमा म॒घोन्यजी॑जनत्सुवि॒ताय॒ श्रवां॑सि । वि दि॒वो दे॒वी दु॑हि॒ता द॑धा॒त्यङ्गि॑रस्तमा सु॒कृते॒ वसू॑नि ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

abhūd uṣā indratamā maghony ajījanat suvitāya śravāṁsi | vi divo devī duhitā dadhāty aṅgirastamā sukṛte vasūni ||

पद पाठ

अभू॑त् । उ॒षाः । इन्द्र॑ऽतमा । म॒घोनी॑ । अजी॑जनत् । सु॒वि॒ताय॑ । श्रवां॑सि । वि । दि॒वः । दे॒वी । दु॒हि॒ता । द॒धा॒ति॒ । अङ्गि॑रःऽतमा । सु॒ऽकृते॑ । वसू॑नि ॥ ७.७९.३

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:79» मन्त्र:3 | अष्टक:5» अध्याय:5» वर्ग:26» मन्त्र:3 | मण्डल:7» अनुवाक:5» मन्त्र:3


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आर्यमुनि

अब उस दिव्यज्ञान की प्राप्ति के लिये परमात्मा से प्रार्थना करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रतमा) हे ज्ञानस्वरूप परमात्मन् ! आपका (वि) विस्तृत ज्ञान (सुविताय) हमारे कल्याणार्थ (उषाः अभूत्) प्रकाशित हो, (मघोनी) हे सर्वैश्वर्य्यसम्पन्न भगवन् ! आप (श्रवांसि) अपनी ज्ञानशक्ति को (अजीजनत्) प्रकाशित करें, हे ज्योतिःस्वरूप ! (दिवः देवी) द्युलोक की देवी (दुहिता) तुम्हारी दुहिताख्य दिव्यशक्ति जो (अङ्गिरः तमा) अत्यन्त गमनशील तमनाशक है, वह (सुकृते) हमारे पुण्यों के लिये (वसूनि दधाति) धनों को धारण करावे ॥३॥
भावार्थभाषाः - हे सर्वशक्तिसम्पन्न परमात्मन् ! आपकी दुहितारूप विद्युदादि शक्तियें हमारे लिये कल्याणकारी होकर हमें अनन्त प्रकाश का धन धारण करावें और आपका ज्ञान हमारे हृदय को प्रकाशित करे ॥ इस मन्त्र में परमात्मरूप शक्ति को “दुहिता” इस अभिप्राय से कथन किया गया है कि “दुहिता दुर्हिता” इस वैदिकोक्ति के समान परमात्मा की विद्युदादि दिव्यशक्तियें दूर देशों में जाकर हित उत्पन्न करती हैं और जो दूर देशों में जाकर हित उत्पन्न करे, उसको दुहिता कहते हैं, इसलिये “दुहिता” शब्द से यहाँ विद्युदादि शक्तियों का ग्रहण है। जहाँ दुहिता शब्द का दिवः शब्द के साथ सम्बन्ध होता है, वहाँ यह अर्थ होते हैं कि जो द्युलोकादि दूर देशों में जाकर हित उत्पन्न करे, उसका नाम ‘दिवो दुहिता’ है। यहाँ दुहिता शब्द के अर्थ शक्ति के हैं, पुत्री के नहीं ॥३॥
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आर्यमुनि

अथोक्तज्ञानप्राप्त्यर्थं परमात्मा प्रार्थ्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रतमा) भो ज्ञानस्वरूप परमात्मन् ! त्वदीयं (वि) विस्तृतं ज्ञानं (सुविताय) नः कल्याणाय (उषाः अभूत्) प्रकाशितं भवेत् (मघोनी) हे अखिलैश्वर्ययुक्त भवान् ! त्वं (श्रवांसि) स्वज्ञानशक्तिं (अजीजनत्) प्रकाशय, हे ज्योतिःस्वरूप ! (दिवः देवी) द्युलोकस्य देवी (दुहिता) तव दुहितृरूपा या दिव्यशक्तिः (अङ्गिरः तमा) अत्यन्तगमनशीला तमोहन्त्री चास्ति, सा (सुकृते) अस्मत्पुण्यकर्मणे (वसूनि दधाति) धनानि धारयतु ॥३॥